IPC 420 Review: फिल्म का अंत पहले ही पता है मगर देखने में फिर भी मजा है


विनय पाठक और रणवीर शौरी को एक साथ स्क्रीन पर देख कर कई सारी बातें याद आ जाती हैं. दोनों की कॉमेडी फिल्में या टेलीविजन के कॉमेडी शोज. कभी कभी दोनों कुछ सीरियस फिल्मों में सीरियस किरदार निभाते भी नज़र आते थे. जब जब विनय पाठक स्क्रीन पर नजर आते थे तो लगता था कि रणवीर भी आते ही होंगे. और ऐसा ही हाल रणवीर का था कि उनका आना यानि विनय पाठक का टपकना तय सा लगता था. अब ज़ी5 पर एक क्राइम ड्रामा फिल्म में दोनों साथ नजर आये हों तो उम्मीदें तो जाग जाती हैं. आईपीसी 420 नाम की फिल्म में विनय पाठक अपराधी के किरदार में हैं और रणवीर सरकारी वकील हैं जो उन्हें सजा दिलवाना चाहते हैं. मुकाबला टक्कर का है, कांटे का.

निर्देशक मनीष गुप्ता ने अपनी ही लिखी कहानी पर फिल्म बनायीं है आईपीसी 420. विनय पाठक एक गरीब चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं जो लोगों के इनकम टैक्स और रिटर्न भरने का काम करते हैं. उनके एक क्लाइंट पर हज़ारों करोड़ के गबन का आरोप लगता है और विनय की भी सीबीआई द्वारा जांच होती है. हालाँकि कुछ मिलता नहीं है. कुछ समय बाद विनय को उनके एक क्लाइंट 50-50 लाख के तीन चेक चुराने के केस में गिरफ्तार करवा देते हैं. मुकदमा शुरू होता है. विनय के वकील हैं रोहन मेहरा और सरकारी यानि प्रॉसिक्यूशन के वकील है रणवीर शौरी.

90-100 मिनट की इस फिल्म में कोर्ट केस और उस से जुडी बातों को बड़े ही बेहतरीन अंदाज में फिल्माया गया है. विनोद मेहरा के सुपुत्र रोहन की बाज़ार के बाद दूसरी फिल्म है. इस फिल्म में भी उन्होंने अच्छा अभिनय किया है. थोड़े तिकडमी किस्म के वकील बने हैं और अपनी चालाकियों से वो विनय पाठक को बेक़सूर साबित करवा लेते हैं लेकिन इसके बदले में विनय को बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती है.

फिल्म में गुल पनाग और आरिफ ज़करिया की महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं. गुल पनाग काफी अंतराल के बाद नज़र आयी हैं और उनके चेहरे के भाव पढ़ते पढ़ते कहानी समझ आ जाती है. दर्शक समझदार हैं और अंत समझ जाते हैं. फिल्म का क्लाइमेक्स आये उस से पहले ही विनय पाठक भी राज़ को बता ही देते हैं. बाकी काम रोहन अपने जासूसी दिमाग से कर देते हैं. विनय और रणवीर दोनों ही ऐयार किस्म के अभिनेता हैं. किसी भी किस्म के रोल ढलने में उन्हें देर नहीं लगती.

रणवीर ने इस बार एक पारसी वकील की भूमिका अदा की है. उनकी डायलॉग डिलीवरी तो नहीं मगर उनका चेहरा मोहरा और मैनरिज़्म एकदम पारसी नज़र आते हैं. जज की भूमिका में संजय गुरबक्षाणि कमाल हैं. जिस तरह एक जज अपनी अदालत में स्टंट और फालतू डायलॉगबाज़ी बर्दाश्त नहीं करता और किसी सीनियर काउंसल की जिरह को तवज्जो देता है, वो बात संजय ने बिलकुल बारीकी से पकड़ी है.

निर्देशक मनीष गुप्ता ने इस के पहले राम गोपाल वर्मा के लिए डी, सरकार और जेम्स जैसी फिल्में लिखी हैं. आरुषि हत्याकांड पर उनके द्वारा निर्देशित रहस्य भी ठीक फिल्म थी. मनीष की लेखनी का सर्वश्रेष्ठ नमूना है अजय बहल की कोर्टरूम ड्रामा सेक्शन 375. वैसे मनीष ने इस फिल्म में भी काफी ज़बरदस्त स्क्रीनप्ले लिखा है. सिर्फ 100 मिनट में उन्होंने कोर्टरूम और कोर्टरूम के बाहर ऐसे दृश्य लिखे हैं कि बतौर निर्देशक उन्हें ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी है. फिल्म फटाफट शूट हो गयी और निर्माता भी प्रसन्न हुए होंगे.

इस फिल्म में ज्योति सिंह ने कॉस्ट्यूम डिज़ाइन की हैं. विनय पाठक और गुल पनाग के किरदार जिन कपड़ों में नज़र आते हैं वो फिल्म के रंग के साथ एकदम मुफीद नज़र आते हैं. सिनेमेटोग्राफर अरविन्द कन्नाबीरन और राज चक्रवर्ती ने छोटी जगहों को शूट करने में कमाल किया है. बैकग्राउंड म्यूजिक में वरिष्ठ संगीतकार रंजीत बारोट ने और निर्देशक मनीष गुप्ता के पुराने साथ सोम दासगुप्ता ने विशेष प्रभाव नहीं डाला है. एडिटर अर्चित रस्तोगी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी को ज़रा देर के लिए भी भटकने नहीं दिया है. सांकेतिक तरीके से शॉट्स लिए गए हैं ताकि फिल्म की गति बरकरार रहे.

फिल्म अच्छी बनी है. देखना चाहिए. कोर्टरूम ड्रामा में इस बार मेलोड्रामा नहीं है. बस कहानी का अंत दर्शक पहले ही भांप जाते हैं.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Film review, Ranvir Shorey



Source link

Leave a Comment